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देवता: इन्द्र: ऋषि: गर्गः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

रू॒पंरू॑पं॒ प्रति॑रूपो बभूव॒ तद॑स्य रू॒पं प्र॑ति॒चक्ष॑णाय। इन्द्रो॑ मा॒याभिः॑ पुरु॒रूप॑ ईयते यु॒क्ता ह्य॑स्य॒ हर॑यः श॒ता दश॑ ॥१८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

rūpaṁ-rūpam pratirūpo babhūva tad asya rūpam praticakṣaṇāya | indro māyābhiḥ pururūpa īyate yuktā hy asya harayaḥ śatā daśa ||

पद पाठ

रू॒पम्ऽरू॑पम्। प्रति॑ऽरूपः। ब॒भू॒व॒। तत्। अ॒स्य॒। रू॒पम्। प्र॒ति॒ऽचक्ष॑णाय। इन्द्रः॑। मा॒याभिः॑। पु॒रु॒ऽरूपः॑। ई॒य॒ते॒। यु॒क्ताः। हि। अ॒स्य॒। हर॑यः। श॒ता। दश॑ ॥१८॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:47» मन्त्र:18 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:33» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:18


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर यह जीवात्मा कैसा होता है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (इन्द्रः) जीव (मायाभिः) बुद्धियों से (प्रतिक्षणाय) प्रत्यक्ष कथन के लिये (रूपंरूपम्) रूप-रूप के (प्रतिरूपः) प्रतिरूप अर्थात् उसके स्वरूप से वर्त्तमान (बभूव) होता है और (पुरुरूपः) बहुत शरीर धारण करने से अनेक प्रकार का (ईयते) पाया जाता है (तत्) वह (अस्य) इस शरीर का (रूपम्) रूप है और जिस (अस्य) इस जीवात्मा के (हि) निश्चय करके (दश) दश सङ्ख्या से विशिष्ट और (शता) सौ सङ्ख्या से विशिष्ट (हरयः) घोड़ों के समान इन्द्रिय अन्तःकरण और प्राण (युक्ताः) युक्त हुए शरीर को धारण करते हैं, वह इसका सामर्थ्य है ॥१८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! बिजुली पदार्थ के प्रति तद्रूप होती है, वैसे ही जीव शरीर-शरीर के प्रति तत्स्वभाववाला होता है और जब बाह्य विषय के देखने की इच्छा करता है, तब उसको देख के तत्स्वरूपज्ञान इस जीव को होता है और जो जीव के शरीर में बिजुली के सहित असङ्ख्य नाड़ी हैं, उन नाड़ियों से यह सब शरीर के समाचार को जानता है ॥१८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरयं जीवात्मा कीदृशो भवतीत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! य इन्द्रो मायाभिः प्रतिचक्षणाय रूपंरूपं प्रतिरूपो बभूव पुरुरूप ईयते तदस्य रूपमस्ति, यस्याऽस्य हि दश शता हरयो युक्ताः शरीरं वहन्ति तदस्य सामर्थ्यं वर्त्तते ॥१८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (रूपंरूपम्) (प्रतिरूपः) तदाकारवर्तमानः (बभूव) भवति (तत्) (अस्य) जीवात्मनः (रूपम्) (प्रतिचक्षणाय) प्रत्यक्षकथनाय (इन्द्रः) जीवः (मायाभिः) प्रज्ञाभिः (पुरुरूपः) बहुशरीरधारणेन विविधरूपः (ईयते) (युक्ताः) (हि) खलु (अस्य) देहिनः (हरयः) अश्वा इवेन्द्रियाण्यन्तःकरणप्राणाः (शता) शतानि (दश) ॥१८॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा विद्युत्पदार्थं पदार्थं प्रति तद्रूपा भवति तथैव जीवः शरीरं प्रति तत्स्वभावो जायते यदा बाह्यं विषयं द्रष्टुमिच्छति तदा तद्दृष्ट्वा तदाकारं ज्ञानमस्य जायते या अस्य शरीरे विद्युत्सहिता असङ्ख्या नाड्यः सन्ति ताभिरयं सर्वस्य शरीरस्य समाचारं जानाति ॥१८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी विद्युत पदार्थांमध्ये तद्रुप होते तसा जीव शरीरामध्ये शरीर स्वभावाप्रमाणे बनतो. जेव्हा बाह्य विषय पाहण्याची इच्छा करतो तेव्हा त्याला पाहून त्याचे स्वरूप ज्ञान जीवाला होते. या शरीरात विद्युतसहित असंख्य नाड्या आहेत, त्यांच्याद्वारे जीव सर्व शरीराचे वर्तमान जाणतो. ॥ १८ ॥